ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में अपनी दिव्य परंपराओं और भव्य रथयात्रा के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर की सबसे महत्वपूर्ण पूर्व-रथयात्रा परंपरा है “स्नान पूर्णिमा” (Snana Purnima) – वह पावन दिन जब भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा का सार्वजनिक रूप से महा-अभिषेक (स्नान) किया जाता है। यह आयोजन न केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विशेष होता है, बल्कि इसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं और स्वयं को धन्य मानते हैं।
स्नान पूर्णिमा क्या है?
स्नान पूर्णिमा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह दिन विशेष रूप से भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहनों के स्नान संस्कार के लिए जाना जाता है। यह परंपरा रथयात्रा से 15 दिन पहले होती है और इसके बाद भगवान जगन्नाथ 15 दिनों के लिए “अनवसर” (Anavasar) में चले जाते हैं, जहां वे दर्शन से ओझल रहते हैं और आयुर्वेदिक उपचार लेते हैं।
स्नान उत्सव की परंपरा
इस दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को स्नान मंडप (Snana Mandap) में लाया जाता है, जो मंदिर परिसर के भीतर स्थित एक विशेष मंच है। यहाँ पर सार्वजनिक रूप से स्नान समारोह होता है, जिसे हजारों श्रद्धालु निहारते हैं।
इस स्नान में:
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108 कलशों में पवित्र जल को विभिन्न तीर्थों से लाकर देवताओं के स्नान हेतु उपयोग किया जाता है।
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जल में चंदन, कपूर, केसर, हरिद्रा (हल्दी) आदि मिश्रित किए जाते हैं।
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पहले बलभद्र, फिर सुभद्रा और अंत में भगवान जगन्नाथ का स्नान होता है।
यह प्रक्रिया घंटों चलती है और इसके दौरान वैदिक मंत्रों, शंखध्वनि और ढोल-नगाड़ों की गूंज से वातावरण भक्तिमय हो जाता है।
भगवान की बीमारी और “अनवसर” अवधि
स्नान के बाद ऐसा माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। इसे “अनवसर काल” कहा जाता है। इस अवधि में भगवान आम दर्शन से ओझल रहते हैं और उन्हें आयुर्वेदिक औषधियों से उपचार दिया जाता है। उनके भोजन में फल, जल और जड़ी-बूटी सम्मिलित होती है।
श्रद्धालुओं के लिए यह एक विरह का काल होता है, लेकिन वे इस दौरान भगवान की भक्ति, व्रत और कथा के माध्यम से उनसे जुड़े रहते हैं।
दर्शन का दुर्लभ अवसर
स्नान पूर्णिमा के दिन देवताओं के दर्शन को “हाथीवेष” (Hati Besha) या गजवेष के रूप में सजाया जाता है। इसमें भगवान जगन्नाथ और बलभद्र को हाथी जैसे पोशाक में सजाया जाता है। यह रूप भगवान गणेश के प्रति श्रद्धा को दर्शाता है। यह दृश्य अत्यंत दुर्लभ और मनोहारी होता है।
आध्यात्मिक महत्व
स्नान पूर्णिमा आत्म-शुद्धि, समर्पण और सेवा की भावना को दर्शाता है। यह परंपरा बताती है कि भगवान भी हमारी तरह अनुभव करते हैं – स्नान करते हैं, बीमार पड़ते हैं और फिर स्वस्थ होकर रथयात्रा के लिए निकलते हैं।
यह विश्वास भक्तों के और भगवान के बीच एक विशेष आत्मीयता को स्थापित करता है। यह भाव कि “भगवान हमारे जैसे हैं, और फिर भी दिव्य हैं,” लोगों को भक्ति से जोड़ता है।
सांस्कृतिक समागम
स्नान पूर्णिमा पर पुरी नगरी उत्सव के रंगों में रंग जाती है। मंदिर के बाहर विशेष सजावट, संगीत, भजन, लोकनृत्य और प्रसाद वितरण होता है। हजारों लोग दूर-दराज़ से इस पर्व में सम्मिलित होने आते हैं।
टेलीविजन और डिजिटल माध्यम से भी इस पर्व का सीधा प्रसारण होता है, जिससे देश-विदेश के श्रद्धालु भी इस अनुष्ठान का लाभ ले सकते हैं।
स्नान पूर्णिमा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, श्रद्धा और सामाजिक एकता का जीवंत उदाहरण है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि सेवा, समर्पण और भावनात्मक जुड़ाव भी है।
पुरी का यह स्नान उत्सव हर वर्ष एक नई आस्था, ऊर्जा और चेतना का संचार करता है। यह न केवल भगवान के प्रति श्रद्धा को बढ़ाता है, बल्कि हमें अपने जीवन को भी शुद्ध करने की प्रेरणा देता है।