भारतीय सनातन संस्कृति में व्रतों का अत्यंत गूढ़ और गहन महत्व है। व्रत केवल उपवास नहीं होते, बल्कि वे आत्मसंयम, अनुशासन और श्रद्धा की परीक्षा होते हैं। इन्हीं व्रतों में सबसे कठिन, लेकिन सबसे पुण्यदायक माने जाने वाले व्रतों में से एक है — निर्जला एकादशी। यह व्रत न केवल शरीर को तपाने का कार्य करता है, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है।
वर्ष 2025 में निर्जला एकादशी का व्रत 6 जून को मनाया जाएगा। यह ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी होती है और इसे भीमसेन एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। जहां अन्य एकादशी व्रतों में फलाहार की अनुमति होती है, वहीं निर्जला एकादशी में जल ग्रहण तक निषेध होता है।
व्रत की उत्पत्ति और पौराणिक कथा
निर्जला एकादशी से जुड़ी कथा महाभारत के पावन पात्र भीमसेन से जुड़ी है। भीम बलशाली थे लेकिन व्रत और उपवास के नियम उनके लिए कठिन थे। जब युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव पूरे मनोयोग से एकादशी व्रत करते थे, तब भीमसेन को यह असंभव प्रतीत होता था।
इस स्थिति को देखकर उन्होंने महर्षि वेदव्यास से मार्गदर्शन मांगा। ऋषि ने बताया कि यदि वे सभी 24 एकादशी व्रतों का पुण्य एक दिन में प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें निर्जला एकादशी के दिन बिना अन्न और जल के उपवास करना होगा। भीमसेन ने इसे स्वीकार किया और कठिन तपस्या से इस व्रत को पूर्ण किया। तभी से इस व्रत को ‘भीमसेन एकादशी’ भी कहा जाता है।
धार्मिक महत्व और आध्यात्मिक प्रभाव
निर्जला एकादशी का महत्व केवल पौराणिक कथा तक सीमित नहीं है, यह आध्यात्मिक रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली मानी जाती है। यह व्रत भगवान विष्णु को समर्पित होता है, जो सृष्टि के पालनहार हैं। एकादशी व्रत करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन के पापों का क्षय होता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जो भक्त निर्जला एकादशी का व्रत करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। यह व्रत व्यक्ति की आत्मा को निर्मल करता है और उसे सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठने का अवसर देता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण: उपवास और शरीर का संबंध
अगर हम आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखें तो निर्जला एकादशी व्रत शरीर को कई तरह से लाभ पहुंचाता है। उपवास एक प्रकार का ‘इंटरमिटेंट फास्टिंग’ होता है, जो पाचन तंत्र को विश्राम देता है। जब व्यक्ति जल और अन्न से दूर रहता है, तो उसका शरीर विषैले तत्वों को बाहर निकालता है, जिसे ‘डिटॉक्सिफिकेशन’ कहा जाता है।
इसके साथ ही उपवास करने से मानसिक संतुलन में भी वृद्धि होती है। जब हम भूख, प्यास और इच्छाओं पर नियंत्रण करते हैं, तो हमारे मस्तिष्क में संयम और स्थिरता आती है। यह व्रत न केवल आध्यात्मिक अनुशासन है, बल्कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है।
व्रत की विधि और पारंपरिक आचार
निर्जला एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से होती है, जब व्रती सात्विक भोजन कर, मन में संकल्प लेता है। एकादशी के दिन प्रातः स्नान कर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और दिनभर जल भी नहीं लिया जाता।
व्रती रात्रि जागरण करते हुए भगवान विष्णु के नाम का जप, कीर्तन और भजन करता है। द्वादशी तिथि को सूर्योदय के बाद, दान और अन्न वितरण के साथ पारण (व्रत का समापन) किया जाता है। इस दिन व्रती को जल से भरा घड़ा, छाता, वस्त्र, फल, जौ, चावल और पंखा दान करने का विशेष फल प्राप्त होता है।
क्या करें और क्या न करें
इस दिन तामसिक भोजन, हिंसा, क्रोध, झूठ, छल और किसी भी प्रकार के दोषपूर्ण आचरण से बचना चाहिए। बाल कटवाना, नाखून काटना और बुरे विचारों को मन में लाना इस दिन वर्जित माना गया है।
जो लोग स्वास्थ्य कारणों से निर्जल नहीं रह सकते, वे फलाहार कर सकते हैं, लेकिन मन में भगवान विष्णु का ध्यान अवश्य रखें। इस दिन का हर पल साधना और सेवा में बिताना चाहिए।
दान की परंपरा और उसका महत्व
निर्जला एकादशी पर किया गया दान कई गुना फलदायी माना गया है। गर्मी के इस मौसम में जल दान, शीतल पेय, घड़ा, चावल, वस्त्र और पंखा दान करना विशेष पुण्य देता है। इससे व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है।
आत्मा की शुद्धि का पर्व
निर्जला एकादशी केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा का एक पड़ाव है। यह हमें हमारी इच्छाओं, लालसाओं और भौतिक मोह से दूर ले जाकर हमें अपने अंतरतम से जोड़ता है। उपवास करने का मूल उद्देश्य केवल शरीर को कष्ट देना नहीं, बल्कि मन और आत्मा को संयमित करना होता है।
क्यों करें निर्जला एकादशी व्रत?
निर्जला एकादशी का व्रत साधक के जीवन को एक नया दृष्टिकोण देता है। यह व्रत हमें सिखाता है कि संयम, भक्ति और सेवा के द्वारा जीवन के सभी कष्टों से मुक्ति पाई जा सकती है। यह व्रत केवल एक परंपरा नहीं है, यह हमारे भीतर के आत्मशक्ति और विश्वास को जागृत करता है।
जो व्यक्ति श्रद्धा और नियमपूर्वक इस व्रत का पालन करता है, वह न केवल इस जन्म में बल्कि अगले जन्मों में भी शुभ फलों को प्राप्त करता है। अतः निर्जला एकादशी केवल उपवास नहीं, यह जीवन को सकारात्मक दिशा में मोड़ने का एक दिव्य अवसर है।